अचानक लाश जलने की बदबू विपिन को आने लगी। मुड़कर चारों तरफ देखा। दूर-दूर तक
कहीं कोई नहीं था। भोर होने को थी। घास पर ओस की बूँदें बिखरी थीं। ये बूँदें
उसकी आँखों में भी उतर आईं। पर ये दुर्गंध कहाँ से आ रही है? शायद कोई
जानवर... नहीं-नहीं, उसने चारों ओर घूम कर देखा, कहीं कुछ नहीं था, पर ये
दुर्गंध बहुत ही नजदीक से आ रही थी... इसी खेत से, मिट्टी को हाथ में उठाया।
उसे नजदीक लाकर सूँघा, हाँ... इसी मिट्टी से आ रही है, लाश जलने की बदबू।
ये मिट्टी इसी खेत की है जिसे कुछ दिन पहले ही विपिन ने चार लाख में बेचा है।
ओह, खेत बेचना, बेटी बेचना, दोनों बराबर ही तो होता है। वह फूट-फूट कर रोने
लगा, बहुत दिनों के बाद।
कितने दिनों के बाद रोया है वह, आँसू भी बहने के लिए एकांत चाहते हैं।
आँसू की तरह यादें भी बिखर गई उसके आस-पास। कुछ ही दिन हुए हैं जब बाबू जी को
लंबी बीमारी अपने साथ ले गई। लगता है जैसे कुछ ही पल बीते हैं अभी, अभी भी
आवाजें सुनाई दे रही हैं साफ-साफ। घर के बाहर भीड़ लगी थी। दिन तो रोने-धोने
में ही बीत गया। शाम होने से पहले दाह संस्कार होना जरूरी था।
पर, बढ़ई आम गाछ के नीचे अर्थी बनाने के लिए हुज्जत कर रहा था।
"मालिक, हम तो पाँच हजार से एक्को पैसा कम नहीं लेंगे!"
वहीं विपिन, किशोर दा और दो चार युवक के साथ खड़ा था। नवीन गरमाता हुआ बोला,
"साला... बकवास करता है... बोल तो ऐसे रहा है जैसे बियाह का मड़वा बनाएगा!"
रासो बढ़ई भी अपना तर्क देता हुआ बोला, "मालिक, हम तो कम्मे बोल रहे हैं...
जितना बड़का आदमी मास्साब थे उस हिसाब से तो कुच्छो नहीं माँग रहे हैं।"
"तुम भी खूब समझता है, इ काम अपने से करने का नहीं है, नहीं तो...।"
"इसीलिए अधिक भचर-भचर कर रहा है।"
इसी बीच एक बच्चा विपिन को बुलाने आ गया, "चच्चा, वहाँ आपको कोई खोज रहा है।"
विपिन, किशोर दा की ओर देखते हुए वहाँ से चला गया जैसे जिम्मेदारी उन्हीं को
सौंप गया।
बहुत हील-हुज्जत के बाद, बात पाँच सौ रुपए पर खत्म हुई।
मृत्यु दुख का कारण होती है पर आर्थिक परेशानियाँ इन्हें और बढ़ा देती हैं।
सुधीर दा, नवीन से कह रहे हैं, "दस मन लकड़ी का तो इंतजाम करना ही पड़ेगा।"
"पाँच किलो घी भी जरूरी है।"
"लकड़ी बेल का नहीं, देवदार या आम का होना चाहिए, बेल का तो हम लोगों में चलता
ही नहीं है, उ तो...।" नवीन ने बात बढ़ाई।
सुशील दा कंधा पर गमछा रखते हुए बोले, "मुझे लगता है चार ट्रैक्टर करना
होगा... एक में लकड़ी और सब सामान रहेगा और बाकी में आदमी।"
नवीन उत्सुक होते हुए, "कितना आदमी होगा?"
सुशील बोला, "खाली टोला-टाटी नहीं, पूरे गाँव भर के लोग आएँगे ही... आस-पास के
गाँवों में भी उनके विद्यार्थी हैं... कुछ तो वो लोग भी रहेंगे ही। पढ़ाते
बहुत अच्छा थे, बहुत इज्जत है आस-पास के गाँवों में इनकी।"
सुधीर बाबू बात को आगे बढ़ाते हुए, "तब तो गाँव वाला घाट ले जाना ठीक नहीं
रहेगा। यहाँ तो गरीब-गुरबा जाता है। यहाँ ले जाने पर ही लोग समझ लेते हैं कि
घर की हालत ठीक नहीं है। थोड़ा दूर है पर सिमरिया घाट ही ठीक रहेगा। क्यों
नवीन, सही कह रहा हूँ न...?"
उनके इस बात पर सभी ने एक साथ सहमति दी कि ये बात एकदम सही है।
विपिन के कानों में आवाज जा रही थी। मन ही मन जोड़ने लगा कि सिमरिया इतने आदमी
को ले जाने में कितना खर्च लगेगा फिर किशोर दा को इशारों से बुलाकर अलग हटकर
बात करने लगा। "अंतिम संस्कार कहाँ किया जाए?"
"वे सभी तो कह रहे हैं कि इज्जत के हिसाब से गाँव वाला घाट ठीक नहीं रहेगा...
सिमरिया ही ले जाना चाहिए।"
"आप क्या कहते हैं?"
"आदमी आगे-पीछे सोच कर कुछ करता है।"
सिमरिया, इतने लोगों को ले जाने में बहुत खर्चा होगा।"
"और अभी तो खर्चा शुरू ही हुआ है।"
"पर, दादा लोग...!"
"लोग क्या कहेंगे... हम कह देंगे कि रात होने लगी है इसलिए गाँव का घाट ही ठीक
रहेगा। गंगा जी की धार यहाँ भी ठीक है।"
उन दोनों के बीच बात तय हो गई पर गोतिया भाई भी अपने हिसाब से तय करते रहे।
कोई बिना सोचे-समझे ही कुछ बोलता तो कोई अपने मन की बात दूसरों से कहलवाता।
अधिकतर लोग यही चाहते थे कि खर्चा अधिक से अधिक हो। ऐसे ही नहीं कहा गया है,
"गोतिया, दाल गलाने से ही गलता है।"
"नए मालिक, बिना एक बीघा खेत के हम आगिन नय देंगे।"
किशोर दा समझाते हुए बोले, "ऐसा बोलो... जो आदमी दे पाए।"
"पैसे की कौन कमी है इनको... मास्साब को कौन नहीं चीन्हता था... अपना इंतजाम
करके गए हैं", कैलू डोम ऐसे बोला जैसे कोई भेद खोल रहा हो।
"पिंसिल मिलता था उनको... पिंसिल"
"तो सब पिंसिल तुम्हारे ही नाम लिख गए हैं साथ में खेती-बारी भी।"
कैलू डोम को ये सब सुनने की आदत थी। वो अपनी माँग बदलते हुए बोला, "मालिक, खेत
नय तो गाय ही दे दो, बाल बच्चा दूध खाएगा और जिनगी भर उनका नाम लेता रहेगा।"
यहाँ भी बहुत देर तक हुज्जत होता रहा। "गाय लेगा... हाँ-हाँ... धेनु गाय
देंगे... साले, तुम तो माथा पर ही चढ़ गए हो... उतरते ही नहीं।"
"अब जो कहिए मालिक", विपिन की ओर देखते हुए कैलू डोम बोला, "हमरा खेती तो आप
सब ही हैं... हम कहाँ जाएँगे पेट पोसने।"
"सही बात है, तुम्हारा कमाई यही है" किशोर दा बोले, "लेकिन बियाह शादी में
माँगते हो तो अच्छा लगता है, पर अभी।"
अपनी बात कमजोर होते देख कैलू डोम बीच में बोल पड़ा, "कोई जवान आदमी थोड़े ही
थे वो... पक्कल आम ही थे... बूढ़ा-बृद्धा में तो हक बनता ही है हमारा।"
अर्थी बनाने से पहले और अब पिता को चिता पर लेटाने के बाद तक... विपिन यही
तमाशा देख रहा था। मृत्यु भी कमाई का जरिया बन जाता है, ये इनसान की
संवेदनहीनता है या पेट की आग, जो...।
विपिन का मन हुआ, गरज कर कह दे, "किसी की लाश पर भी तुम अपना पेट भर लेते
हो... आदमी हो...!" लेकिन वो चुपचाप तमाशा देखता रहा और कैलू डोम हाथ नचा-नचा
कर बोलता रहा।
"गाय नय तो पाँच हजार रुपया ही दे दो मालिक।"
विपिन एक ओर चिता पर अपने पिता की लाश देख रहा था, तो दूसरी तरफ समाज की इस
सच्चाई को। एक तरफ जीवन का सच तो दूसरी तरफ समाज का। हुज्जत होते-होते मात्र
200 रुपये पर बात खत्म हुई और तब विपिन अपने पिता को मुखाग्नि दे पाया। और धू
धूकर चिता जलने लगी। मिट्टी का शरीर राख बनने लगा। पर, भावनाएँ तो मिट्टी नहीं
होती। एक बार आग की लपटों से निकाल कर वह अपने बाबू जी को देखना चाहता है। पर
अग्नि अपने साथ बहुत कुछ जला रही थी।
पाँच-छह दिन बीत गए। धीरे-धीरे भोज भात की चर्चा होने लगी। विपिन दरवाजे पर
बैठा सबकी बातें सुन रहा था।
मदन चा बोले, "अरे विपिन, चद्दर क्यों नहीं ओढ़ लिया... ठंड लग गई तो... अभी तो
नमक भी नहीं खाते... फलाहार पर ही हो। कमजोरी तो ऐसे ही आती है बिना नमक के।
अरे ननकू जा जरा भौजी से माँग कर चद्दर तो ला दो, ऐसे ही भोज खाएगा।"
भोज का नाम सुनते ही बाटो दा को बात शुरू करने का मौका मिल गया, "अरे पिछले
साल चैत में दशरथ दा के बाबू जी मरे थे। इ भोज हुआ... इ भोज हुआ कि क्या
कहें... अभी तक अगल-बगल के गाँवों में चर्चा होती है।"
"अच्छा... काका हम नहीं थे उ समय... मैट्रिक वाला परीक्षा दिलवाने चले गए
थे... जरा अच्छे से बताओ", भौंआ उचकाते हुए बड़े लाल बोला। हालाँकि वो सब
जानता था, केवल भोज की चर्चा करके माहौल बनाना चाहता था ताकि ये सुनकर विपिन
को उत्साह आए और वो भोज करने में कोई कसर न छोड़े।
"क्यों काका, चाह पिए बिना नहीं बताओगे!"
"अरे गुगवा, जरा भीतर जाकर डेगची में चाह चढ़ाने के लिए भौजी से बोल दो।"
बिना तसला भर चाह के यहाँ नहीं पुरेगा। कक्का नहीं बोलने वाले बिना भर गिलास
चाह पीये।
पीछे से चहकते हुए महेश बोला, "काका भी गप्प रसाना जानते हैं... अगर तुरंत ही
सब बता देंगे तो फिर गप्प का सुआद चला जाएगा।"
"हो कक्का, बताइए न जल्दी से... अब तो रहा नहीं जाता", बड़े लाल चिरौरी करते
हुए बोला।
बाटो काका तोंद को हिलाते हुए सँभल कर बैठ गए, "अच्छा... अच्छा, कहते हैं...
तुम लोग भी नाक में दम कर देते हो।"
सब सुनने वाले थोड़ा और उनके नजदीक होकर खिसक लिए। विपिन चुपचाप सब देख और सुन
रहा था।
"चटनी... दू रंग का तरकारी, रतोबा और देशी घी का छनौआ पूड़ी... दूर से ही
गम-गम गमक रहा था। हवा में उड़कर घी की महक दूसरे गाँव तक पहुँच रही थी।" जाँघ
पर हाथ फेरते हुए बोले, "इ सबसे बढ़कर पाँच रंग की मिठाई।"
"पाँच रंग की मिठाई... देशी घी वाली पूड़ी" आश्चर्य करते हुए बड़े लाल बोला।
"हाँ, उ कोई देहाती हलवाई नहीं था... बाहर से मँगवाया था... क्या मिठाई बनाया
था... अरे खाली खाजा ही सिलाव के खाजा को फैल कर रहा था... क्या मुचमुच खाजा
था... दिलखज्जो था दिलखज्जो!"
दिलखज्जो सुनकर मदन चा के मुँह पर उस खाजे का स्वाद आ गया, बस इतना ही बोल
पाए, "दिलखज्जो"।
बाटो काका उनकी अस्फुट आवाज का स्वाद समझ गए। आगे बोले, "महीन दाना लड्डू...
कलई दाल वाला जिलेबी... उजरका रसगुल्ला और इ बड़का-बड़का करका रसगुल्ला, एकदम
बड़हिया वाला एटम बम।"
"उजरका रसगुल्ला तो ऐसा कि अगर एक बार रस गार दो तो... रुईया जैसा हो जाता था।
25-50 तो ऐसे ही खा जाना बड़ी बात नहीं थी।"
"करका रसगुल्ला तो ऐसा था कि..." बोलते हुए उनके मुँह में रसगुल्ले की मिठास
घुल रही थी और सुनने वाले सुनकर ही रसगुल्ले के स्वाद का आनंद ले रहे थे।
भोज का ऐसा वर्णन करने की कला इस गाँव में सबके पास नहीं थी कि सुनने वाले भोज
का आनंद लेने लगें और जिस ध्येय से कहा जा रहा हो वो ध्येय भी पूरा हो जाए।
विपिन से भी सभी ऐसे ही भोज की आशा करने लगे। सुनने वालों का मुँह देखकर बाटो
काका समझ गए कि इतनी देर से जो बोलने में मेहनत किया, वो बेकार नहीं गया।
तिरछी नजर से विपिन की ओर देखा कि इस वर्णन का जिस पर असर होना चाहिए, उस पर
कितना हुआ है... या फिर से मुक्त कंठ से वर्णन करना होगा।
पर शायद विपिन अनमना सा कुछ और ही सोच रहा था। गणेश वातावरण में आई शांति से
भीतर ही भीतर बेचैन होने लगा, उकसाते हुए बोला,
"बाटो का, आप भी कहाँ का गधा और कहाँ का सींघ... शुरू कर देते हैं... कहाँ
दशरथ बाबू की रईसी और...।"
बाटो काका झट से बात काटते हुए बोले, "गणेशवा, तुम भी बुद्धि से पैदल ही रह
गए... दशरथ दा आज के रईस थे... बेटे के पैसों से रईसी कर रहे हैं और विपिन...
विपिन का घर तो पहले से ही उन लोगों से बहुत आगे है... विपिन के बाबा में भी
उनसे कम भोज नहीं हुआ था... और दादा तो अपना इंतजाम खुद करके ही गए हैं।"
मदन चा भी तपाक से कूद पड़े, "और विपिन जैसा बेटा है जो आज तक उनके सामने आँख
उठाने की हिम्मत नहीं कर पाया, मरने के बाद भी उनकी इज्जत बनाए रखेगा... तुलना
भी करते हो तो किससे... दशरथ दा से।"
मदन चा ने चालाकी से तुलना करके विपिन को दशरथ दा से बीस साबित कर दिया। तुलना
में कोई भी अपने को कमतर नहीं होने देना चाहता है।
नवीन भी बात को ठोक पीटकर और दुरुस्त कर लेना चाहता था। वो बात की पेंच कसते
हुए बोला, "हमारे तुम्हारे तरह थोड़े ही है कि खाली खेती से पेट पोसते हैं...
चचा नौकरिया थे... सरकारी नौकरी थी, ...पेंशन वाली।"
सभी विपिन की हामी से मुहर लगवाना चाह रहे थे पर विपिन था कि चुप्पी लगाए। इसी
बीच स्टील वाली थाली में प्लास्टिक वाले पीओ-फेंको कप में सबके लिए चाय आ गई।
चाय लेते हुए बंशी दा बोले, "विपिन तुम कहो तो...!"
"मैं उस हलवाई को जानता हूँ जिसने मुचमुचिया दिलखज्जो बनाया था।"
"कहो तो कल भोर वाली जनशताब्दी पकड़ लूँ", आशा भरी नजरों से देखते हुए बोले।
लेकिन विपिन बिल्कुल चुप था। वहाँ पर बैठे सभी लोगों को विपिन का ये व्यवहार
देख कर मायूसी होने लगी।
"तुम भी मरदे कहाँ फँसा रहे हो... उतना दूर आने-जाने में खर्चा नहीं होता है
क्या?"
"बाहर से आएगा... सौ नखरे दिखाएगा... मैं बढ़िया हलवाई जानता हूँ... उस से कम
नहीं है इसका भी दिलखज्जो और खर्चा भी कम" मदन चा बोले।
अपनी बात सबके सामने कटते देख बाटो काका चिढ़िया गए, "तुम न मरदे... क्या
बुझोगे!"
मदन चा भी जवाब देने के लिए जैसे तैयार ही बैठे थे, "हाँ... हाँ... दूर का ढोल
सुहावन होता है, सब जानते हैं पर उ ढोल बजाने में खर्चा भी तो होता है।"
फिर भी विपिन पर इस बहस का कोई असर नहीं पड़ा। लेकिन मदन चा सहमति की आशा में
बोले, "कहो तो कल उसे बुला लाऊँ!"
बाटो काका को लगने लगा कि विपिन इतनी जल्दी हाँ नहीं बोलने वाला है। अपनी धोती
झाड़ते हुए खड़े हो गए, बोले "सब हम लोग अपने ही मन से कर करा देंगे कि कुछ
विपिन को भी सोचने-विचारने के लिए छोड़ेंगे... घर परिवार से बात-विचार कर
लेगा।"
"चल रे गणेशवा चल, साँझ हो गया... गाय दुहने का बेला होने वाला है" बाटो काका
कहते हुए वहाँ से निकलने लगे। इसी बीच नाई भी आ गया क्योंकि अरगासन ले जाने का
समय हो गया था।
पिछले नौ दिनों से केदार पंडी जी गरुड़ पुराण कहते आ रहे थे। उनकी भितरिया
इच्छा थी कि श्राद्ध वही कराएँ। भरे-पूरे घर से जितना अधिक हो सके दक्षिणा टान
सकें पर फूफा जी ने उनकी एक न चलने दी।
इसका एक कारण ये भी था कि ऐसे अवसरों पर जो अधिक मदद करता है या जिनकी बात
अधिक चलती है उसे, उस परिवार का सबसे अधिक निकट का मान लिया जाता है। इतने
सगे-संबंधियों के बीच फूफा जी ये मौका छोड़ना नहीं चाह रहे थे। सबके बीच
उन्होंने ये ऐलान कर दिया कि साले बाबू के श्राद्ध में तो पंडित बाहर से आना
ही चाहिए। क्योंकि गाँव के पंडित जी का संस्कृत उच्चारण अशुद्ध होता है जिससे
आत्मा को शांति नहीं मिलती है। और श्राद्ध में गाँव के बाहर से भी लोग आएँगे।
उनके बहुत से विधार्थी जो बाहर नौकरी-चाकरी करते हैं, वो भी आएँगे। उनके सामने
गाँव वाले पंडित जी ठीक नहीं रहेंगे। और इससे घर की आर्थिक स्थिति का भी
अंदाजा लग जाएगा।
ये बात उन्होंने विपिन से बिना विचार किए ही सबके सामने कह दी। साथ ही ये भी
कह दिया कि अगर पंडित जी का इंतजाम यहाँ नहीं हो सका तो हमारा उठना-बैठना
बड़े-बड़े लोगों के बीच होता है, वहीं से बुलवा देंगे।
अब तो विपिन चाहकर भी उनकी बात नहीं काट सकता था। फूफा जी से पहले फुआ ही सबके
सामने छाती पीटना शुरू कर देतीं, दादा के आँखें बंद करते ही हमारा नैहर छूट
गया... सब अपनी मर्जी के मालिक हो गए... हमें पूछता कौन है!
विपिन मन ही मन समझ रहा था पंडित जी के आने का खर्च पर कई बार सब समझते हुए भी
चुप रहना जरूरी हो जाता है। सब बातें बोलने के बाद फूफा जी विपिन को देखकर
बोले, "क्यों विपिन, तुम क्या कहते हो... पंडित जी को बुलवा रहे हो या...?"
विपिन बोलना चाह ही रहा था कि फुआ बीच में बोल पड़ीं, "बेटा, तुम ये सब चिंता
छोड़ो... फूफा जी सब सँभाल लेंगे... परिवार में बड़े बूढे इसीलिए तो होते
हैं... तुम अपना माथा हल्का रखो, ऐसे ही बहुत भार तुम्हारे ऊपर है।"
फूफा जी कुरते की जेब से मोबाइल निकाल कर बोले, "लो अभी ही बात कर लेते हैं...
तुम भी निश्चिंत हो जाओगे।"
"हेल्लो..."
"परनाम, मैं वेणु प्रकाश बोल रहा हूँ... आप से एक प्रार्थना थी।"
"हाँ यजमान, प्रणाम-प्रणाम... कहिए क्या सेवा की जाए?"
"ऐसा कहकर आप हमें क्यों पाप चढ़ा रहे हैं "थोड़ा रुकते हुए, "हमारे साले बाबू
का स्वर्गवास हो गया है... हम सब चाहते हैं कि श्राद्ध आप ही संपन्न करवा देते
तो...!"
"अगर आप के पास समय है तो...!"
"अच्छा, कब है, देखता हूँ फुरसत में हूँ या नहीं!"
"15 तारीख को"
"अच्छा "कुछ सोचते हुए, "ठीक है, उस समय फुरसत में हूँ।"
"जी, बड़ी कृपा होगी आपकी, आप पधारें।"
पंडित जी आने को तैयार हो गए पर विपिन के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। उसे इस
बात की चिंता होने लगी कि पंडित जी दक्षिणा कितना लेंगे।
फूफा जी ने बात आगे बढ़ाई, "आपके योग्य तो हम नहीं हैं फिर भी हमसे जो हो
सकेगा, उतना करने से हम पीछे नहीं रहेंगे।"
पंडित जी बात ताड़ रहे थे, कहा, "आप तो हमारे पुराने यजमान हैं... आपके आगे हम
क्या मुँह खोलेंगे... पर अपनी सुविधा के लिए एक बात कहना चाहता हूँ।"
"जी... जी, कहा जाए"
"बात इतनी सी है कि हमारी उम्र हो गई है, रेलगाड़ी या बस से तो अब आना-जाना
नहीं कर पाते हैं... असुविधा होती है इसलिए कार भेजनी होगी हमें लाने के लिए!"
"जी, जरूर"
इसके बाद पंडित जी एक साथ कई फरमाइश करने लगे।
"बुढ़ापे का असर है, पेट पहले जैसा नहीं रहा... डालडा और रिफाइन से हमें परहेज
है। खाना तो दो कौर ही है पर शुद्ध घी का बना खाते हैं। दो बजे दोपहर में भोजन
कर पाते हैं। नाश्ते में काजू, किशमिश, कम चीनी वाली मिठाई और एक गिलास काली
गाय का दूध।"
फूफा जी उनकी हर इच्छा पूर्ण करने को तत्पर थे।
"और सबसे जरूरी बात है सुबह-सुबह गाय के घी के साथ काली मिर्च की बुकनी डालकर
पीते हैं... गला साफ रहता है, अगर इतना इंतजाम कर पाए तो हम...!"
मोबाइल स्पीकर पर था, सभी सुन ही रहे थे। विपिन भी सुन रहा था और विपिन की
पत्नी सुषमा भी सब सुन रही थी। उसके चेहरे पर एक साथ कई भाव आ जा रहे थे।
फूफा जी बोले, "हाँ... हाँ, क्यों नहीं हो पाएगा!"
"हमें आपसे यही आशा थी... तीन हजार रुपये प्रति दिन के हिसाब से हमें...!"
इतना सुनकर विपिन के माथे पर पड़ी चिंता की रेखा और गहरी हो गई। सुषमा का मन
हुआ कि चुपचाप यहाँ से उठकर चल दे पर ये सोच कर बैठी रही कि सब तुरंत
खुसुर-फुसुर करने लगेंगे कि ससुर के काज में पतोहू ही विघ्न खड़ा कर रही है।
बस यही सोच कर वो चुप रही पर विपिन को देखकर मन ही मन गुस्से में यही सोचती
रही कि "खाय के खरची नय, और नगर में ढिंढोरा।"
काज खत्म होने के बाद जब घर में एक रुपैया नहीं बचेगा तब समझ में आएगा।
रात हो आई। विपिन अपने कमरे में चुपचाप लेटा सोच रहा था, फूफा जी ने बात तो तय
कर दी पर कहाँ से हो पाएगा इतने पैसों का इंतजाम... बाबू जी के इलाज में खर्चा
हुआ... वो तो उनका पेंशन था कि गृहस्थी और इलाज किसी तरह चल पाया। मेरी
बेरोजगारी और खेती ने तो...!
इसी बीच सुषमा फलाहार के लिए काजू, किशमिश और साबूदाना लिए आई। बरतन जोर से
रखने की आवाज से विपिन का ध्यान टूटा। वो उठकर बैठ गया। एक नजर सुषमा पर डाली।
सुषमा का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था। पर वो इस बात पर चर्चा करना नहीं चाह
रहा था। उसने कहा, "काजू-किशमिश क्यों ले आई... साबूदाने से ही पेट भर जाता।"
सुषमा व्यंग्य करते हुए बोली, "केवल आपके नहीं खाने से खर्चा घट तो नहीं
जाएगा।"
विपिन तीखे शब्द बाण समझ रहा था।
"नहीं, मैं तो ये कह रहा था कि बुल्लू के लिए रहने देती... उसे अच्छा लगता है
न!"
"हुँह, बोल तो ऐसे रहे हैं जैसे हर महीने किलो-किलो खरीद कर बुल्लू को खिला
रहे हैं।"
"उसके बारे में सोचते तो आज हाथ इस तरह खुला नहीं छोड़ते।"
बोलते-बोलते सुषमा की आवाज थोड़ी तेज हो गई फिर ध्यान आते ही आवाज धीमी की
ताकि कोई सुन न ले।
"सबके यहाँ तो क्रिया-करम होता है पर इ नौवलक्खा पंडी जी तो नहीं आते... तो
क्या उनके यहाँ जो मरते हैं उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलती। फूफा जी को क्या
लगा बोलने में, फरमान सुना दिया... अब खिलाते रहो खोवा और पिलाते रहो घी।" मैं
कहती हूँ, "हम अपने बच्चे का पेट काटकर ही तो बारह गाँव न्योतेंगे... जित्ता
का ठिकाना नहीं और मरने के बाद... भों-भों नगाड़ा।"
विपिन कुछ नहीं बोला। सुषमा ने एक पल विपिन को गौर से देखा फिर बोलने लगी, "अब
तो बाबू जी रहे नहीं... खाली खेती से घर का खर्चा चल जाएगा?"
"नहीं न... पिछले बरस जो गाय मरी... तो गाय पोसना ही छोड़ दिया... खाने भर दूध
और गोइठा से कुछ तो आता था।"
"दिन-रात पसीना बहाकर खेती की... ले गया सखुआ सब... कह गया था न दो महीने बाद
अनाज का पैसा दे जाएगा... छह महीने से ऊपर हो गया... लौट कर मुँह भी नहीं
दिखाया... ऊपर से इतना बड़ा खरचा।"
सुनते-सुनते विपिन को गुस्सा आने लगा, "तो क्या कहती हो, किरिया करम नहीं
करें... छोड़ दें!"
विपिन को गुस्सा होते देख सुषमा थोड़ा शांत होते हुए बोली, "ये कब कह रही
हूँ... नहीं करो पर आदमी अपनी हैसियत देखकर खर्च करता है... अभी तो केवल पंडी
जी तय हुए हैं... भोज भात और सब...!"
वो बोल ही रही थी कि बाहर से आवाज आई, विपिन दा... विपिन दा कहाँ हैं?
आवाज सुनते ही सुषमा चुप हो गई और लोटे से गिलास में पानी भरने लगी। नवीन कमरे
में घुसते हुए बोला, "दादा आप यहाँ हैं... दरवाजे पर महापात्र आए हैं...
श्राद्ध में जो सब सामान लगेगा उसका चिट्ठा लिखाने आए हैं।"
"वहीं उनको बैठाओ... मैं पीछे से आ रहा हूँ", विपिन बोलकर पानी-पीने लगा।
विपिन जैसे ही जाने के लिए तैयार हुआ कि सुषमा बोल पड़ी, "अभी सबका जीभ बित्ता
भर का हो जाता है इसलिए जो करिएगा सोच-विचार कर।"
विपिन कुछ नहीं बोला, चला गया।
महापात्र धोती-कुरता पहने माथे पर चंदन लगाए कुर्सी पर गंभीर मुद्रा में बैठे
थे। विपिन को देखते ही उनके मुख पर प्रसन्नता आ गई। दरवाजे पर जो लोग इधर-उधर
खड़े बातें कर रहे थे, सभी इन दोनों की बातचीत सुनने घेर कर खड़े हो गए तो कुछ
चौकी पर बैठ भी गए।
महापात्र जी, विपिन की ओर देखते हुए,
"श्राद्ध में लगने वाले सामान का लिस्ट हमें तैयार कर लेना चाहिए ताकि उस समय
कोई असुविधा न हो।"
विपिन ने एक बच्चे को कॉपी-कलम लाने के लिए कहा। महापात्र जी ने पहले तो
लंबी-चौड़ी भूमिका बाँधी,
"करने वाले तो अपने सामर्थ्य के अनुसार करते हैं... दान में जो वस्तु हम देते
हैं उसका फल दिवंगत आत्मा को मिलता है।"
पर आसपास खड़े सभी समझ रहे थे कि अब ये असली मुद्दे पर आएँगे।
पलंग, तोशक, चादर, मसहरी, जूता, छाता, पीतल के बरतन, अनाज...।
सामानों की सूची लंबी होती जा रही थी। अंत में गाय और सोना दान लिखाया
उन्होंने।
गाय और सोना दान सुनते ही विपिन के हितैषी किशोर दा की नजर टेढ़ी हो गई और जो
मजा लेना चाह रहे थे, उनका मुख मंडल चमकने लगा। विपिन के कुछ बोलने के पहले ही
किशोर दा बोल पड़े, "आप भी गजबे कर रहे हैं... गाय और सोना आज के जमाने में
कौन दान करता है!"
महापात्र जी के लिए ये विरोध कोई बड़ी बात नहीं थी। वो अपनी बोली को शहद की
तरह मीठा करते हुए कहने लगे, "ये क्या कह रहे हैं किशोर बाबू... इनके बाबा में
ही दान हुआ था... विपिन बाबू के घर की कीर्ति यहाँ दस गाँव में किससे छुपी
है!"
महापात्र जी अच्छी तरह से जानते थे कि चाशनी में बोली डुबाकर बोलने से सामने
वाले पर क्या असर होता है क्योंकि ये उनका पुश्तैनी धंधा था।
किशोर दा भी ऐसों को अच्छी तरह पहचानते थे। महापात्र जी की बात काटते हुए
बोले, "वो आज से 50-60 बरस पहले की बात है... अभी गाय का दाम जानते हैं... अब
तो बूढ़ी गाय भी दान करना मुश्किल है, दुधारू गाय का तो नाम ही मत लीजिए।"
गमछा कंधे पर रखते हुए बंशी दा, "उ जुग की बात मत करो... उस जमाने में सब घर
के आगे गाय बँधी रहती थी... दो चुरुआ दूध सबको मिल ही जाता था... आज कितने घर
के आगे दुधारू खड़ी है।"
तर्क में दम था पर नवीन को लगा कि ऐसे तो विपिन दा सीधे-सीधे निकल जाएँगे,
बिना खर्च का श्राद्ध कैसा। राजू के पीठ पर हाथ रखते हुए उसने अपने तरफ से
पासा फेंका, "इ कोई बात है... करने वाले आज भी कर ही रहे हैं... गाय नहीं तो
कम से कम बछिया तो दान करना ही चाहिए... काका को स्वर्ग में पैठ होगा... ये
कौन...?"
बीच में एक बार विपिन ने आँख उठकर नवीन को देखा। नवीन चुप हो गया। नवीन के चुप
होते ही महापात्र जी समझ गए कि गाय दान करने वाले ये नहीं हैं।
वातावरण पूरी तरह से नकारात्मक होने से पहले महापात्र जी ने बात छेड़ी, "चलिए
कोई बात नहीं... अपने अपने सामर्थ्य की बात है... कम से कम अठन्नी भर सोना तो
दान होना ही चाहिए... बिना सोना दान किए श्राद्ध पूरा नहीं माना जाता है।"
किशोर दा विपिन का मुँह देखने लगे और विपिन किशोर दा का। फिर महापात्र जी शुरू
हो गए, "देखिए, हम कोई अशरफी तो नहीं कह रहे हैं... आठ आने भर की तो बात है।"
किशोर दा तमक पड़े, "फिर गाय लो या अशरफी... क्या फरक पड़ता है... बात तो एक
ही है।"
"देखिए, दो हजार आदमी का आप भोज करेंगे... बाहर से कितने लोग आएँगे... वो यही
तो देखेंगे... भोज के खर्च के हिसाब से तो ये कुछ भी नहीं है।"
कुर्सी पर बैठे-बैठे बंशी काका ने बड़ी कुशलता से बात तय करवा दी, "तुम सब भी
केतना माथा-पच्ची करते हो... दो घंटे से जिरह हो रहा है तो होइए रहा है...
चौवन्नी भर में बात खत्म करो, समझे!"
किशोर दा फिर विपिन का मुँह ताकने लगे।
"उसका मुँह क्यों ताक रहे हो... हमारी बात तो विपिन का बाप भी नहीं टालता था।"
दान के सामानों की लंबी सूची में चौवन्नी भर सोना जुड़ते ही महापात्र जी का
चेहरा खिल गया। खड़े होते हुए बंशी काका बोले, "बाप रे बाप... बैठे-बैठे डाँरा
दरद हो गया।"
जोगिंद्र भी वहीं बैठा सब सुन रहा था कि बंशी काका बोले, "रे जोगिंद्रा, कल
ट्रैक्टर समय पर ले आना। कल भोज की खरीदारी भी करनी है। ठंडा दिन में समय का
पता ही नहीं चलता है कि सूरज कब दो बाँस ऊपर चढ़ गया।"
विपिन उठकर चला गया तब किशोर की ओर बंशी काका टेढ़ी नजर करते हुए बोले, "क्यों
किशोर, तुम तो जरूर जाओगे... अभी तो तुम में और विपिन में खूब सट्टम-सट्टा
है... हाथ-पैर तो तुम्हीं हो उसके।" फिर मुँह पर चौवनिया मुस्कान लाते हुए,
"जाओ जरा उसके पैसा कौड़ी का भी इंतजाम देख लो... कहीं ऐसा न हो कि कल पूरे
दिन पैसा जोरियाने में न लग जाए और साँझ यहीं हो जाए... आजकल सूरज डूबते देर
नहीं लगती।"
अगले दिन किशोर दा शर्ट, फुलपैंट पहने कंधे पर ललका चुनरिया, गमछा लिए विपिन
की कोठरी में आए। विपिन उस समय लकड़ी वाले अलमारी में कुछ खोज रहा था।
"भोज का सामान लाने जा रहे हैं" पीछे से किशोर दा बोले।
"हाँ दादा, आपका ही इंतजार कर रहे थे... और कौन-कौन है साथ में?"
"8-10 आदमी हो गए हैं... दो ट्रैक्टर भी तैयार है... अब बस चलने भर की देर
है।"
"बाढ़ ही जा रहे हैं न?"
"नहीं, मोकामा चलते हैं... दो-चार किलोमीटर का ही तो अंतर है। मैं कल ही जाकर
पता कर आया हूँ... मोकामा आस-पास के बाजार से सस्ता है।"
"वैसे तुम क्या कहते हो?" किशोर दा ने पूछा।
"दादा, क्यों लजा रहे हैं... मैं तो आपके ही भरोसे निश्चिंत हूँ... आप ही तो
सब सँभाल रहे हैं आप नहीं रहते तो पता नहीं...!" बोलते-बोलते विपिन की आवाज
काँप गई और आँखें भी भर आईं। पर वो तुरंत ही पीछे मुड़कर रुपये निकालने लगा और
आँसू को आँखों से बाहर नहीं निकलने दिया। किशोर दा समझ गए पर कुछ नहीं बोल
पाए।
ये लीजिए रुपये, पर इतने से तो काम नहीं हो पाएगा... पर मोकामा में बाबू जी के
विद्यार्थी की दुकान है... जो उधारी दे देगा। बाद में चुकाते रहेंगे। रुपये
लेकर किशोर दा कुछ पल चुप रहे... फिर बोले... इतने रुपयों का इंतजाम कहाँ से
हुआ?
विपिन जमीन पर बिछे कंबल पर बैठते हुए बोला... आपसे क्या छुपा है दादा बाबू जी
सबको समय-समय पर कर्ज देते रहते थे बिना सूद के। मैंने उनको बस एक बार कहा...
घर तक पहुँच गए। फुआ ने भी 25 हजार दिया है।
कितने का इंतजाम हुआ है?
एक लाख का तो हो गया है कुछ और हो जाएगा पर...?
पर क्या!
अगर दो लाख का इंतजाम हो जाए तो श्राद्ध पूरा हो जाएगा।
किशोर दा सोचते हुए बोले - जिस हिसाब से खर्च हो रहा है लगता है तीन लाख से तो
कम खर्च नहीं होगा।
फिर दादा... उतना तो मैं...?
वो सांत्वना देते हुए बोले... तुम परेशान मत हो... ऊपर वाला सब इंतजाम करेगा।
इतने में गणेश गरजता हुआ आया।
किशोर दा... किशोर दा चलना नहीं है क्या। सब तैयार है कब से। ट्रैक्टर हॅार्न
पर हॅार्न दे रहा है। किशोर दा कमरे से जोर बोले... बस अभी आया ट्रैक्टर
स्टार्ट करो।
किशोर दा के जाने के बाद विपिन के माथे में फिर चिंता घूमने लगी। दो लाख का
इंतजाम तो किसी तरह हो जाएगा। पर और एक लाख कहाँ से लाएगा। सूद पर... सूद अभी
2 रुपया सैकड़ा चल रहा है। एक लाख का 2 हजार रुपये महीना हो जाएगा। मूल तो दूर
की बात है। सूद का दो हजार रुपये महीना कहाँ से आएगा... सूद किसी तरह दिया भी
तो मूल कहाँ से लौटा पाएगा। फुआ भी कह रही थी जो पैसा उन्होंने दिया वो कर्ज
लेकर दिया है। पर वो भी अच्छी तरह जानता है 25 हजार रुपये उनके लिए बड़ी बात
नहीं है।
एक-एक पाई सबको चुकानी होगी। गृहस्थी बेटे की पढ़ाई सब कैसे हो पाएगा।
कैसे चुका पाएगा सबको कर्जा... कभी-कभी मन करता है कि श्राद्ध करने गया ही चला
जाता। भोज-भात पर बेकार का खर्चा है। समाज की चक्की में वो पिस जाएगा। कितना
भी खिलाओ पर लोग हमेशा यही कहते हैं जिलेबी मोट पत्तल छोट। हाँ-हाँ यही ठीक
होता। जिसे कम खर्च करना होता है वो गया चला जाता है। लोग... लोग क्या कहेंगे
यही न कि पितृॠण नहीं उतार पाया। ओह नहीं... नहीं ये मैं क्या सोच रहा हूँ।
क्या इतना स्वार्थी हो गया हूँ मैं। आज जब भोज खिलाने की बारी आई तो मैं... न
जाने कितनी बार बाबू जी की उँगली पकड़कर कितनी दूर-दूर तक भोज खाने गया हूँ...
और आज जब खिलाने की बारी आई तो...।
अंतर्द्वंद्व के बीच सामने बाबू जी के कमरे पर नजर पड़ी... किवाड़ खुला है
सामने उनका बिछावन दिख रहा था।
लगा जैसे एक पल के लिए बाबू जी उदास नजर आए... नहीं-नहीं बाबू जी मैं भोज
करूँगा। जितना मुझसे हो पाएगा। आज नहीं तो कल दिन जरूर बदलेगा पर आप तो लौट कर
नहीं आएँगे... हाँ-हाँ करूँगा भोज।
भीतर का आवेग शांत होते ही फिर बुद्धि ने सिर उठाया। कहाँ से हो पाएगा। इतना
पैसा खर्च करने की स्थिति में तो वो नहीं है। खेती से कितना आएगा। पानी, खाद,
बीज, मजदूर करते-करते जितना खर्चा होता है कभी-कभी तो सब लौट आता है पर अधिकतर
वर्षा, बाढ़, सूखा में फसल चौपट हो जाती है। खर्चा तक तो ऊपर हो नहीं पाता है।
पर पिछले बरस फसल अच्छी हुई थी। 90 हजार का गेहूँ और मकई सखुआ को बेचा था। अगर
वो समय पर पैसा देता तो बैंक में जमा करने पर कुछ सूद भी होता। पर महीनों पहले
अनाज लेकर गया सखुआ आज तक देह भी दिखाने नहीं आया। कितने गाँवों के किसानों का
पैसा लेकर भागा है। आसरा देखते सबकी आँखें पथरा गई। कितने बीमार किसान उसके
लौटने की उम्मीद लिए ही मर गए। पैसा था ही नहीं इलाज कहाँ से होता। कितनी
बेटियों का ब्याह टूट गया पर सखुआ नहीं आया।
अभी भी लोग आसरा देख रहे हैं। पुलिस दरोगा भी किया... भगवान से भी कहा, पर
सखुआ तो नहीं आया लौटकर।
फिर वो किस दम पर तीन लाख भोज में खर्चा करने को तैयार है जबकि घर में उसके
पास जमा पूँजी के नाम पर बस 30 हजार रुपये हैं। फिर कैसे...?
कोयला वाला बड़का-बड़का चूल्हा कल से ही जल रहा है। वातावरण में शोरगुल और
मिठाइयों की खुशबू तैर रही है। नए-नए कपड़े पहन कर इधर-उधर फुदकते-उछलते कूदते
बच्चे।
कई मन दूध का छेना बना है। सैकड़ों काला रसगुल्ला बड़का-बड़का टब में उब-डूब
कर रहा है वहीं दूसरे टब में उजला रसगुल्ला इतना भरा है कि लगता है कि वो टब
के दीवाल पर सब देखने चढ़ गया है। महीन दाना लड्डू कल रात ही तैयार हो गया है।
इमली की चटनी, रतोबा और सबसे बढ़कर तरकारी तेल से छलमलाता हुआ फूलकोबी और गरम
मसाले की सुगंध दूर-दूर तक जा रही है।
पूड़ी छानना शुरू कर देना चाहिए क्योंकि तीन हजार आदमी के लिए पूड़ी बनाना कोई
खेल तो नहीं है... हलवाई ने बोलते हुए आस-पास नजर दौड़ाई पर किशोर दा नहीं
दिखे। वहीं थोड़ा हटकर नरेश और नवीन कुर्सी पर बैठे ठहाका लगा रहे थे। हलवाई
ने नरेश से ही पूछ लिया... किशोर दा तो दिखाई नहीं दे रहे आपको अंदाजा होगा
ही... कितना मन आटा का पूड़ी बनेगा।
नरेश तपाक से बोल पड़ा... अरे मरदे 12-13 मन आटा का पूड़ी छान दो। हलवाई थोड़ा
अकचकाया पर बोला कुछ नहीं चला गया।
उसके बगल में बैठा नवीन बोला... ये क्या बता दिया मरदे... 9-10 मन तो बहुते
था। कनखी मारते हुए नरेश बोला... दो-चार मन ही तो अधिक बोला है। इतना पइसा रख
कर विपिन दा क्या करेंगे...।
नवीन भी विचित्र हँसी-हँसते हुए बोला... हाँ सही कह रहे हो यार... मास्टर काका
बैंक ठसाठस भर कर गए हैं। भोज में तो थोड़ा बहुत बरबाद होना भी चाहिए। नहीं तो
कैसे लगेगा बड़का आदमी का भोज है।
आज तेरहा हो गया। सगे संबंधी सभी पीपल में जल डालकर शुद्ध हो गए। आज से सभी
गोतिया संबंधी पूजा कर सकेंगे।
विपिन घूम घूम कर देख रहा है। जूठे पत्तलों पर कौए मँडरा रहे हैं। कितना मन
आटे की पूड़ी यूँ ही रखी रह गई, कितनी बाल्टी तरकारी और मिठाइयाँ बची रह गई।
जितना भोज में खाना बरबाद हुआ है उससे कई महीने तक घर का खाना चल जाता। क्या
करेगा इन बचे खानों का... बँटवाना ही होगा नहीं तो बरबाद हो जाएगा।
कल से बेटे की पढ़ाई और घर का खर्चा चलाना मुश्किल हो जाएगा और आज अन्न की
इतनी बरबादी।
थोड़ी देर चौकी पर बैठकर सोचता रहा फिर कॉपी-कलम लेकर हिसाब करने लगा
किसको-कितना देना है... कितना बकाया है। पास में जो कुछ बचे था जितना होगा
उतने का हिसाब कर देगा... फिर देखा जाएगा कहाँ से इंतजाम करना है। हलवाई,
टेंट, जेनरेटर सबका हिसाब लिखते-लिखते जोड़ कर देखा तो खर्चा तीन लाख से कुछ
ऊपर ही था। उसे लगा शायद जोड़ने में कहीं कोई गलती हो गई होगी। फिर से जोड़ कर
देखा, 3 लाख 15 हजार ही आया और घर में पूँजी के नाम पर सिर्फ 30 हजार ही थे।
दो लाख तो कर्ज ले चुका है... एक लाख पंद्रह हजार और... चिंता और घबराहट में
उसकी व्याकुलता बढ़ गई। ठंड के दिनों में भी माथे पर पसीना आ गया। लगा पत्नी
ठीक ही कह रही थी। हैसियत के हिसाब से ही खर्च करना चाहिए... उसकी बात पर
ध्यान नहीं दिया। ओह अब क्या करूँगा! कि धोबिन की जोर से बोलने की आवाज आई...
इ पचास कपड़ा हुआ!
फिर विपिन की ओर देखते हुए बोली, मालिक हमरा हिसाब फुरसत से कर दीजिएगा, अभी
जग का घर है हम फिर आ जाएँगे।
आँगन में बैठी दमयंती फुआ बोली, यहाँ मरनी में धोबिन क्या लेती है...?
सुषमा रसोई से निकलते हुए, कपड़ा धोने का जो होगा और भोज-भात में घर भर का
खाना... रात में भी ले गई थी और अभी भी ले जाएगी।
सुनते ही धोबिन का नरम स्वर गरम होने गया। कपड़ा के हिसाब से पइसा नहीं दिया
जाता दुल्हिन... हमरा 25 पसेरी गेहूँ, दू गो नयका साड़ी... पूरे परिवार का
खाना होता है।
सुषमा को सुनते ही लगा जैसे किसी ने किरासन तेल डाल दिया हो देह पर, फिर भी
गुस्सा दबाते हुए बोली, हाँ-हाँ बहती गंगा में सबने हाथ धो ही लिया... तुम्ही
क्यों बचो।
बिनिया धोबिन टिरुसते हुए बोली हमरे पर मत तमको मलकीनी... हम अपने मन से
लगा-भिड़ा के तो नहीं बोल रहे। जो चला आ रहा है... बस वही बताए। आपके घर में
सास होती तो सब जानती... तुम तो अभी बहुरिया हो। बड़ी मालकिन के आगे मुँह नहीं
खोलना पड़ता।
अंत में दमयंती फूआा बीच बचाव करती हुई बोली, अच्छा-अच्छा जो चला आ रहा है वो
तो तुम्हारा होगा ही। हम भी दो-चार घर पता कर लेंगे।
हाँ, हाँ मालकिन जरूर पता कर लेना, हम कोई गलत थोड़े ही बोल रहे हैं और इ भी
पूछ लेना कि अनाज देने से पहले अगर बीच में गरहन लग गया तो अनाज सीधा दुगुन्ना
हो जाता है।
इतना सुनते ही सुषमा के देह में लगा किसी ने दिया सलाई जला दिया हो। (देह में
आग लग गई हो।)
ये कौन सा नियम है... किसने कहा कि ग्रहण लगते ही अनाज दुगुन्ना देना पड़ता
है। खेत में उपज हो न हो पर तुम्हारा कर्जा हमें उतारना होगा। तब तो हम हाथ
में कटोरा ही पकड़ेंगे ना और तो कोई रास्ता बचता ही नहीं है।
सुषमा विपिन को निगल जाने वाली नजरों से देखती हुई सामने से चली गई। बिनिया
धोबिन फिर कपड़ा गिनने लगी, एक, दू, तीन...।
विपिन हिसाब जोड़कर पत्नी को जाते देखता रहा और धोबिन की बात सुनता रहा कि
दरवाजे के पास कुम्हार भी आकर खड़ा हो गया... मालिक, भोज का बचा पूड़ी
रसगुल्ला लेने आए थे। गाँव भर में भोज की ही चर्चा हो रही है।
हूँ... बैठो, पूड़ी रसगुल्ला ले लिए। डलिया दिखाते हुए कुम्हार बोला, हाँ
मालिक वही लेने आए थे। मालिक ऐसा भोज तो आस-पास इलाके में नहीं देखा है।
विपिन चुपचाप सुन रहा था फिर बोला, कुछ कहना चाहते हो
हाँ मालिक... बिनिया धोबिन की तरह हमारा भी 24 पसेरी अनाज हिस्सा होता है...
10 दिन के मट्टी का बरतन जो दिया उसका आप जो दे दें, आप के आगे मुँह क्या
खोलेंगे...।
इसी बीच नाउन भी पिछवाड़े के दरवाजे से हाथ में पैर रँगने की कटोरी, रंग, माथे
पर अचरा लिए भीतर आ गई।
मालकिन कहाँ हैं... आज तेरहा के दिन गोड़ रंगा कर ही पवित्तर हुआ जाता है।
सुषमा नहीं दिखाई दी। नाउन ने इधर-उधर आँख नचा कर देख लिया। वहाँ बैठी फुआ से
बोली, तब तक आप ही रँगा लीजिए, दुल्हिन काम-धाम में होगी।
बैठ कर दमयंती फुआ के पैर का नाखून काटने लगी। विपिन की ओर देखती हुई बोली,
लगता है मालिक हिसाब कर रहे हैं। कुम्हार की ओर देखती हुई - ढेना-ढेनी बुतरू
जनमा लिया। कितना भी दो इसका पेट कहियो नय भरने वाला है। नाखून काटने के बाद
छोटकी पुड़िया से रंग निकाल मिलाने लगी।
साल भर देह दिखाए या ना दिखाए पर मरनी और बियाह में बरतन क्या दे दिया...
पहुँच जाता है हिस्सेदारी पर अनाज लेने।
थोड़ा जोर से बोलते हुए ताकि विपिन सुन सके हमरे ससुर जी तो बिना नागा किए हर
एतबार को मास्साब की दाढ़ी बनाने जरूर आते थे... हमरा तो वाजिब हक बनता है।
अब कुम्हार समझ चुका था निशाना उसी पर साधा जा रहा है। उसने भी अपने हिसाब से
जवाब दिया, हम कब कह रहे हैं कि सब हिस्सा हमरे होगा। धोबिन, नाउन पचपौनिया
में आते ही हैं उसी तरह हम भी हैं। जितना तुम लोगी, उतना हमरा भी होगा। 25
पसेरी से एक्को कनमा कम नय। मेहनत की बात मत करो... तुम से कम हम भी नहीं खटते
हैं। नाउन, कुम्हार का झगड़ा वहीं शुरू हो गया।
विपिन उठकर चला गया। पीछे से पत्नी की आवाज आ रही थी, देंगे क्यों नहीं
देंगे... जो धारे हैं तुम लोगों का उ तो किसी भी हाल में देना होगा गरहन लगने
के पहले नहीं तो महाजन के सूद की तरह उ भी दुगुन्ना हो जाएगा।
विपिन का दिमाग सुन्न हुआ जा रहा था। पत्नी नाउन, कुम्हार सबकी आवाज दूर तक आ
रही थी। वो खेत के आर पर तेजी से चला जा रहा था।
भोज ऐसा हुआ कि आस-पास के इलाके में चर्चा हो रही है। पंडित जी दक्षिणा लेकर
अघा गए। महापात्र जी को सब मिला पर थोड़ा और की भाषा वो नहीं भूले।
पशु-पक्षी से लेकर आदमी (गाँव समाज) की तृप्त हो गया भोज खाकर। पर इस तृप्ति,
प्रशंसा का वो क्या करेगा जब परिवार भूखा रहेगा। इस प्रशंसा से वो कर्ज उतार
पाएगा। कैसे चुकाएगा कर्ज, खेत बेचकर या पत्नी का जेवर बेचकर।
जितना सोचता उतनी ही तेजी से खेत की पगडंडी पर चला जा रहा था। उस खेत में जाकर
रुका जहाँ बाबू जी के साथ बचपन में मटर की छिमियाँ तुड़वाने बैलगाड़ी से आता
था। अवचेतन कितने सारे दृश्यों को मस्तिष्क में छिपाए रखता है और समय आते ही
वो दृश्य बिखर जाते हैं।
हरी मटर, नीले फूल, पके हुए लहलहाते गेहूँ कितने अन्न उपजाए हैं इस खेत ने। वो
खेत में बैठ गया।
बाबू जी कहा करते थे तुम्हारे जन्म की निशानी है ये खेत। तुम्हारे लिए खरीदा
मैंने। उसका खेत है लेकिन शायद अब...!
उसे फिर बाबू जी याद आए। बचपन में बाबू जी से सुनी एक कहानी याद आई। पिता,
चक्रवर्ती राजा दशरथ के मृत्यु की समाचार जंगल में राम जी को मिला तो उन्होंने
जंगल में फल से ही चक्रवर्ती राजा का श्राद्ध किया था। शास्त्र भी कहता है
कर्ज लेकर श्राद्ध नहीं करना चाहिए पर धर्म के नाम पर ही कहाँ सुनता है समाज,
शास्त्र और रामायण की बातें। मृत समाज, व्याघ्र के बाण से घायल क्रौंच के तरह
विपिन के आँसू बहने लगे।